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जीत की कहानी: पंडिता रमाबाई

जीवन

जीत की कहानी: पंडिता रमाबाई

जीत की कहानी

भारत में कई समाज सुधारक हुए हैं जिन्होंने भारत की प्रगति और समानता बनाने में अहम भूमिका निभाई है। ऐसी ही एक जीत की कहानी है एक मज़बूत और द्रिड निर्णय लेने वाली महिला पंडिता रमाबाई की, एक ऐसी महिला जिनकी समाज की उल्लेखनीय आलोचना भारत के महान इतिहास से मिटा दी गई है। मैं पूरी उम्मीद करता हूँ की आपको उनकी कहानी में बेहध दिलचस्पी होगी और प्रेरणा मिलेगी। वो पहली भारतीय महिला थी जो एक संस्कृत स्कॉलर पंडिता से सम्मानित किया गया है।

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शुरुआती जीवन

उनका जन्म 23 अप्रैल 1858 कर्नाटक राज्य में, माला गाँव में, गंगामूला में हुआ था। उनके पिता का नाम अनंत शास्त्री था जो काफ़ी सम्मानित समाज सुधारक थे। उन्होंने अपने माता-पिता बहुत छोटी उम्र में खो दिया और उसके बाद वो अपने भाई के साथ कोलकाता चली गयी।

रमाबाई जीवन में जल्दी सामाजिक सुधार की दुनिया में आ गई थीं। उन्होंने महिलाओं की पढ़ाई और आत्म निर्भर होने के लिए महिलाओं को संबोधित करते हुए कोलकाता और बंगाल प्रेसीडेंसी में लम्बी चौड़ी यात्रा की। उन्होंने महिलाओं की आज़ादी के लिए सख्ती से काम किया। 20 साल की होने से पहले ही वह एक शिक्षाविद् (educationist) के रूप में जानी जाती थीं। उन्होंने और उनके भाई ने महिला शिक्षा और सामाजिक सुधार के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए देश का दौरा भी किया।

सच्चाई को जानने का सफ़र

एक बार पंडिता रमाबाई को अपने पति के पुस्तकालय में बंगाली में लिखी गई बाइबिल के कुछ अध्याय मिले जो लुका की किताब से थे। उन्होंने अपने पति से इसके बारे में पूछा, और उन्हें बताया गया कि वह किताब एक मिशनरी स्कूल में मिली है। वह और जानना चाहती थी, इसलिए उन्होंने उसे समझने के लिए अपने घर में एक मिशनरी को बुलाया। यीशु के बारे में सुनकर उन्होंने यीशु के लिए आकर्षण को महसूस किया। फिर उन्होंने भारत में और बाद में इंग्लैंड में बाइबिल का अध्ययन करना शुरू किया।

पंडिता रमाबाई की उपलब्धि और संघर्ष

पंडिता रमाबाई 1889 में भारत लौट आईं और बॉम्बे (मुंबई) में लड़कियों के लिए एक स्कूल स्थापित किया जिसे शारदा सदन (ज्ञान का घर) कहा जाता है। यह उस समय में बॉम्बे में विधवाओं के लिए पहला घर था और पूरे देश में ऐसे सिर्फ़ दो ही स्कूल थे। एक वर्ष के अन्दर ही इस स्कूल पर हमला हुआ, और यह देखते हुए कि रमाबाई ने विधवाओं को प्रार्थना सभाओं में जाने की अनुमति दी, स्थानीय आर्थिक सहायता बंद हो गयी। वह स्कूल पुणे ले गई, और 1900 तक, स्कूल में 80 महिलाओं को ट्रेनिग दी गयी, जो शिक्षा या नर्सिंग के माध्यम से जीवन में आगे बढ़ीं। उन्होंने देश का पहला महिला आश्रय खोला था।

इस जगह पर, उन्हें एहसास हुआ कि यदि उन्हें अपने काम के साथ चलना है तो उन्हें यीशु की मदद की कितनी ज़रूरत थी। उन्होंने लिखा:

“इस समय तक मुझे एक बात पता थी, कि मुझे यीशु मसीह की ज़रूरत थी और केवल उनके धर्म की नहीं… मैं हताश थी … मेरे विचार मेरी और मदद नहीं कर सकते थे। मैं अपनी ताक़त के अंत तक पहुँच चुकी थी, और मैंने बिना शर्त खुद को यीशु मसीह-उद्धारकर्ता के सामने समर्पण कर दिया था; और मेरी धार्मिकता और छुटकारे के लिए, और मेरे सारे पापों को दूर करने के लिए उसे मुझ पर दया की।”

इस बीच, 1897 में पुणे के आसपास एक अकाल आ गया। इसलिए पुणे सरकार ने लोगों के आंदोलन को रोककर इसके प्रसार को रोकने की कोशिश की; लेकिन पंडिता रमाबाई को तब भी ये दिल में महसूस हुआ की उन्हें विधवाओं और लड़कियों की देखभाल के लिए ईश्वर (यीशु मसीह) से बुलावा आया है जो अकाल से पीड़ित थीं, इसलिए उन्होंने पुणे से 30 मील दूर केडगाँव में 100 एकड़ जमीन खरीदी और अपना दूसरा स्कूल शुरू किया। उन्होंने इसे “मुक्ति मिशन” कहा। उन्होंने जल्द ही 200 लड़कियों और बाल विधवाओं को ढूंढ लिया और उन्हें नए स्कूल में ले आयी।

इन स्कूल और आश्रम की स्थापना के अलावा, 1904 में, उन्होंने बाइबिल का अनुवाद हीब्रू और ग्रीक से हिंदी में किया। 1919 में, इंग्लैंड के राजा ने पंडिता रमाबाई को “केसर-ए-हिंद” पुरस्कार से सम्मानित किया, जो कि भारतीय इमिग्रैंट्स को उस दौरान दिए जाने वाला सर्वोच्च सम्मान था। पंडिता रमाबाई ने 1922 में अपनी मृत्यु तक लड़कियों की देखभाल की। ​​पुणे में ये मिशन आज भी सक्रिय है।

जीवन की आशा 

पंडिता रमाबाई वास्तव में एक असाधारण महिला थीं जिन्होंने महिलाओं की शिक्षा का बीड़ा उठाया और महिलाओं के अधिकारों और सशक्तीकरण के लिए विद्रोह किया। उनकी सोच आज भी ज़िंदा है क्योंकि मरने के बाद भी उन्होंने कई महिलाओं और युवा लड़कियों के जीवन को प्रभावित किया है। वह महाराष्ट्र और भारत की आज भी सबसे प्रमुख महिला लीडर में से एक हैं।

पंडिता रमाबाई ने अपने आसपास के लोगों की ज़रूरतों के लिए बहुत ही प्रशंसा वाले काम किए। और उन्हें मुश्किल परिस्थिति में अपनी आशा और उद्देश्य यीशु मसीह से ही मिली। उन्होंने यीशु मसीह के प्यार से भर कर ही लोगन की इतनी सेवा की। अगर आप यीशु मसीह को जानना चाहते हैं तो नयिमंज़िल से बात करें।

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